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अपनों के आशीर्वाद

नहीं बसेगी बस्ती अब उन गली और चोबरो में.. नही रहेगी वो मस्ती  इन जीवन के अँधियारो में। रात और दिन निकल रहे ,और कुछ बात कह रहे... कुछ तो मतलब है सप्ताह के बीते इतवारों में। राह नही मुड़ सकती मंज़िल तेरी नहीं झुक सकती.. जो तेरा अपना लक्ष्य है वो तुझे ही पाना है। तू नदी को वो बहती धारा है जो रुक नहीं सकती.. मत रुक ऐ जीवन के राही तुझे इस पार आना है। बहता रह उन्मुक्त होकर अपने जीवन को सही दिशा में.. के अंत में तुझे जीवन के सबसे बड़े महासागर में मिल जाना है। अतीत से अपने अपनों के आशीर्वादों के खजाने लाया हूँ.. बहुत देर चला अब लौटकर वापस आया हूँ। स्वप्निल जैन (स्वरचित)