बारिश का पानी और कागज की नाव
बीच मझदार में फँसी,मेरी कागज की नाव।बनाई थी बडे शौक से ,बारिश हो जाने के बाद।।
डगमगाती सी लग रही ,मेरी कागज की नाव।कभी रिमझिम तो कभी ,तेज होता बारिश का पानी।।
कभी खाती हिचकोले ,पानी की लहरों के साथ।तो फिर कभी मुसकुराती सी लगती,संभल जाने के बाद।।
चल रहा है ये सिलसिला,एक लंबे अरसे से।मन मचल भयभीत हो रहा,जाने कितने समय से।।
बचपन में तो युं ही तैर जाती थी,कागज की ये नाव।अब क्या हुआ ऐसा कि ,डरी सहमी सी लग रही कागज की नाव।।
सवाल में ही तो,जवाब छुपा रखा है।कागज की नाव तैराने,बचपन के जाँबाज दोस्तों कोजो बुला रखा है।।
समझ सभी को आया तो ,सभी के चेहरों पे मुस्कराहट सी फैल गई।बचपन में नहीं समझते थे दुनियादारी,तभी तो बेझिझक नाव तैर गई।।
हमारे इतने समझते ही ,वो नाव नजरों सेओझल हो गई।कागज की नाव आज फिर,जीवन का सुंदर सन्देश दे गई।।
- स्वप्निल जैन( मेरी कुछ वर्ष पूर्व लिखी कविता को पुनः प्रकाशित किया है )
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