बचपन के मेहमान - Bachpan ke Mehmaan - guests of childhood

चल वक्त से थोड़ा सा फिर मजाक कर ले...
जो खोये हैं लम्हे उन्हें याद ही कर ले ।


क्या थी तेरी-मेरी हैसियत बचपन की गलियों में...
चल आज फिर उस बचपन को याद कर ले।


तोड़ लेता था तू डगाल पर लगी इमलियो को...
न रोकता था तू साइकिल के पेडलो को।


भागता था एक तेज हवा सा स्कूल के मैदानों में...
तू ही तो था जो क्रिकेट का असली आल राउंडर था।


थाम लेता था एग्जाम्स के दिनों में पैन को यूँ..
के तुझ से बड़ा पढ़ाकू भी कोई न था।


क्या लगती थी आई एम् पी भी तेरे ज्ञान के आगे..
के आधा पेपर तो तू छपने के पहले ही बाँट देता था।


दौड़ता था बचपन तेरा गली, मोहल्लों और स्कूल के मैदानों में ..
आज दौड़ता है तू जिंदगी के घमासान आसमान में।


छूना चाहता है तू चाँद और सितारों को..
भूल जाता है तू अपनी ही ज़मीन के नजारों को।


दौड़ कौनसी अच्छी लगी अब तुझे...
या भूल गया तू बचपन के मासूम अरमानों को।


थोड़ा सा अभी जगा हुआ है...

तो जगा ले फिर बचपन के मेहमानों को।


ये मेहमान ही हैं जो पुरानी यादों से निकल आते हैं..
मिलने आते हैं फिर अपने घर चले जाते हैं।


जिंदगी यु ही बीत जायेगी हमेशा की तरह..
ये मेहमान फिर भी आ आकर तुझे हमेशा गुदगुदाएंगे।

स्वप्निल जैन

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